....................।। श्री हरि : ।।.................
।। श्रीमद्भगवत् गीता-- दशवां अध्याय ।।
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हे अर्जुन ! दैत्योंमें प्रमुख प्रह्राद और गणना करने वाले ज्योतिषियों-में काल मैं हूँ तथा पशुओंमें सिंह और पक्षियोंमें गरूड़ मैं हूँ । पवित्र करनेवालोंमें वायु शस्त्रधारियोंमें राम मैं हूँ । जल-जन्तुओंमें मगर मैं हूँ और नदियोंमें गंगाजी मैं हूँ । हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ । विद्यायोंमें जो अलौकिक विद्या ' अध्यात्मविद्या ' अर्थात् आत्मज्ञान श्रेष्ठ है , इसे ही अध्यात्मविद्या ( ब्रह्मविद्या ) कहा गया है वह मैं हूँ । परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका , जो बिना पक्षपातके केवल तत्व-निर्णयके लिये किया जानवाला ' वाद ' मैं ही हूँ । अक्षरोंमें आकार , दो या दोसे अधिक शब्दोंको मिला कर समास बनता है । प्रधानता रखने वाला शब्द प्रधान ' द्वन्द्व समास ' मैं हूँ । कालका भी महाकाल - अक्षय महाकाल , समग्र दृष्टि रखनेवाला , सब ओर मुख वाला , सबका पालन-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ । सबका हरण करने वाली मृत्यु और भविष्यमें उत्पन्न होनेवाला मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति , श्री , वाणी , स्मृति , मेघा , धृति ( सिद्धांत व मान्यता पर डटे रहने की शक्ति ) और क्षमा भी मैं ही हूँ ।
दशवां अ. श्लोक 30 से 34 तक ।
..जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि