Narayan Prasad Kiran Sharma क्यों करते हैं प्रसाद वितरण, जानिए
'पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।'
अर्थ : जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप में प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूं। -श्रीकृष्ण
प्रासाद चढ़ावें को नैवेद्य, आहुति और हव्य से जोड़कर देखा जाता रहा है, लेकिन प्रसाद को प्राचीन काल से ही नैवेद्य कहते हैं जो कि शुद्ध और सात्विक अर्पण होता है। इसके संबंध किसी बलि आदि से नहीं होता। हवन की अग्नि को अर्पित किए गए भोजन को हव्य कहते हैं। यज्ञ को अर्पित किए गए भोजन को आहुति कहा जाता है। दोनों का अर्थ एक ही होता है। हवन किसी देवी-देवता के लिए और यज्ञ किसी खास मकसद के लिए।
प्राचीनकाल से ही प्रत्येक हिन्दू भोजन करते वक्त उसका कुछ हिस्सा देवी-देवताओं को समर्पित करते आया है। यज्ञ के अलावा वह घर-परिवार में भोजन का एक हिस्सा अग्नि को सपर्पित करता था। अग्नि उस हिस्से को देवताओं तक पहुंचा देता था। चढा़ए जाने के उपरांत नैवेद्य द्रव्य निर्माल्य कहलाता है।
यज्ञ, हवन, पूजा और अन्न ग्रहण करने से पहले भगवान को नैवेद्य एवं भोग अर्पण की शुरुआत वैदिक काल से ही रही है। ‘शतपत ब्राह्मण’ ग्रंथ में यज्ञ को साक्षात भगवान का स्वरूप कहा गया है। यज्ञ में यजमान सर्वश्रेष्ठ वस्तुएं हविरूप से अर्पण कर देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है।
शास्त्रों में विधान है कि यज्ञ में भोजन पहले दूसरों को खिलाकर यजमान करेंगे। वेदों के अनुसार यज्ञ में हृविष्यान्न और नैवेद्य समर्पित करने से व्यक्ति देव ऋण से मुक्त होता है। प्राचीन समय में यह नैवेद्य (भोग) अग्नि में आहुति रूप में ही दिया जाता था, लेकिन अब इसका स्वरूप थोड़ा-सा बदल गया है।
पूजा-पाठ या आरती के बाद तुलसीकृत जलामृत व पंचामृत के बाद बांटे जाने वाले पदार्थ को प्रसाद कहते हैं। पूजा के समय जब कोई खाद्य सामग्री देवी-देवताओं के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो वह सामग्री प्रसाद के रूप में वितरण होती है। इसे नैवेद्य भी कहते हैं।
प्रत्येक देवी या देवता का नैवेद्य अलग-अलग होता है। यह नैवेद्य या प्रसाद जब व्यक्ति भक्ति-भावना से ग्रहण करता है तो उसमें विद्यमान शक्ति से उसे लाभ मिलता है।